-: भारत की मिटटी | | Soil Of India -:
पृथ्वी के धरातल पर मिटटी (मृदा) असंघटित
पदार्थों की एक परत है, जो
अपक्षय और विघटन के कारकों के माध्यम से चटटानों और जैव पदार्थों से बनी है। मिटटी
निर्माण को प्रभावित करने वाले कारक- धरातलीय दशा, जलवायु,
चटटान, प्राकृतिक वनस्पति इत्यादि हैं।
भारतीय
मृदाएं एवं उनका कुल क्षेत्रफल-:
मृदा |
कुल क्षेत्रफल (प्रतिशत में) |
जलोढ़ |
43.40 |
काली |
15.20 |
लाल तथा पीली |
18.60 |
लैटेराइट |
3.70 |
मरूस्थलीय |
4.00 |
क्षारीय |
1.29 |
पीटमय एवं जैव |
2.17 |
पर्वतीय मृदा |
5.50 |
मिटटी के अध्ययन के विज्ञान को मृदा विज्ञान
(पेडोलॉजी) कहा जाता है।
भारत में प्रतिवर्ष वायु एवं जल द्वारा
5 बिलियन टन से अधिक मृदा का अपरदन होता है।
मृदा अपरदन के कारण : - नदी, मूसलाधारा
वर्षा,
भूमि का ढाल, वायु, वनस्पति
का नाश, पशु चारण, कृषि, मनुष्य तथा जीव-जन्तु आदि हैं। देश के कुल भू-क्षेत्र का 32 प्रतिशत भाग
भू-क्षरण से प्रभावित होता है।
भू-क्षरण
से सर्वाधिक प्रभावित राज्य हैं- गुजरात, महाराष्ट्र,
राजस्थान एवं जम्मू-कश्मीर।
मृदा
अपरदन रोकने के उपाय :- बांध बनाना, वृक्षारोपण,
पशुचारण पर प्रतिबंध, कृषि प्रणाली में परिवर्तन
आदि। देश के कुल भू-क्षेत्र का 17.8 प्रतिशत भाग वायु अपरदन से प्रभावित है। मृदा में
लवणीयता एवं क्षारीयता की समस्या उन क्षेत्रों में सर्वाधिक होती है जहां वर्षा अपेक्षाकृत
कम होती है एवं वाष्पीकरण की दर वर्षण की दर से अधिक होती है।
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भारत की महत्वपूर्ण मृदाएं :-
भारतीय
कृषि अनुसंधान परिषद ने भारत की मिटिटयों को आठ भागों में विभाजित किया है।
1-
जलोढ़ मिटटी (Alluvial Soil)
भारत
के लगभग 43.4 प्रतिशत क्षेत्र पर इस मिटटी का विस्तार है। नदियों द्वारा लाए गए तलछट
के निक्षेपण से इस मिटटी का निर्माण हुआ है। इस मिटटी में नाइट्रोजन, फास्फोरस एवं हयूमस की कमी होती है। परन्तु इस मिटटी में पोटाश एवं चूने
का अंश पर्याप्त होता है। जलोढ़ मिटटी तीन प्रकार की होती है- तराई, बांगर एवं खादर। यह हल्के भूरे रंग की होती है। यह मिटटी उत्तरी विशाल मैदान
एवं तटवर्ती मैदान क्षेत्रों में पायी जाती है।
2-
काली मिटटी (Black Soil)
इस
मिटटी का विस्तार भारत के लगभग 15.20 प्रतिशत क्षेत्रफल पर है। इस मिटटी का निर्माण
लावा पदार्थों के विखंडन से हुआ है। इस मिटटी का रंग काला होने के कारण इसमें कुछ विशिष्ट
लवणों,
जैसे- लोहा एवं एल्युमिनियम के टिटानीफेरस मैग्नेटाइट यौगिक आदि की
उपस्थिति है। इसे रेगुर नाम से जाना जाता है।
यह
मिटटी मुख्यत: महाराष्ट्र, दक्षिण एवं पूर्वी गुजरात,
पश्चिमी मध्य प्रदेश, उत्तरी कर्नाटक,
उत्तरी आन्ध्रप्रदेश, उत्तर-पश्चिम तमिलनाडु,
दक्षिण-पूर्वी राजस्थान आदि क्षेत्रों में पायी जाती है। यह मिटटी काफी
उपजाऊ है। इसमें नाइट्रोजन, फास्फोरस एवं जीवांश की कमी होती
है। यह मिटटी कपास की कृषि के लिए उत्तम है। इसके अलावा यह मूंगफली, तम्बाकू, गन्ना, दलहन एवं तिलहन
की कृषि के लिए अनुकूल है। इसमें जलधारण क्षमता भी अधिक होती है।
3-
लाल मिटटी (Red Soil)
इस
मिटटी का विस्तार भारत के लगभग 18.6 प्रतिशत क्षेत्रफल पर है। इस मिटटी का निर्माण
ग्रेनाइट,
नीस तथा शिष्ट जैसी रूपान्तरित चटटानों के विखंडन से हुआ है। लोहे
के ऑक्साइड की उपस्थिति के कारण इसका रंग लाल होता है। इस मिटटी का रंग कहीं-कहीं
चाकलेटी तथा पीला भी दिखता है।
इस
मिटटी में नाइट्रोजन, फास्फोरस एवं हयूमस की कमी होती है।
यह मिटटी आन्ध्र प्रदेश एवं पूर्वी मध्य प्रदेश, छोटानागपुर
का पठारी क्षेत्र, पं बंगाल के उत्तरी-पश्चिमी जिलों,
मेघालय की खासी, जयन्तिया तथा गारो के पहाड़ी क्षेत्रों,
नागालैण्ड, राजस्थान में अरावली पर्वत के पूर्वी
क्षेत्रों तथा महाराष्ट्र एवं कर्नाटक के कुछ क्षेत्रों में पायी जाती है।
इस
मिटटी में मुख्यत: मोटे अनाज, दलहल एवं तिलहन की कृषि की जाती
है। हाल में तमिलनाडु एवं कनार्टक में इस मिटटी पर कहवा एवं रबड़ के बगानों का विकास
किया गया है। चूना का इस्तेमाल कर इस मृदा की उर्वरता बढ़ाई जा सकती है।
4-
लेटेराइट मिटटी (Laterite Soil)
इस
मिटटी का निर्माण मानसूनी जलवायु की आर्दता एवं शुष्कता के क्रमिक परिवर्तन के परिणामस्वरूप
उत्पन्न विशिष्ट परिस्थितियों में होता है। यह मिटटी मुख्य रूप से पूर्वी एवं पश्चिमी
घाट,
राजमहल की पहाड़ी, केरल, कर्नाटक के कुछ क्षेत्र, ओडिशा का पठारी क्षेत्र,
छोटानागपुर का पाट प्रदेश, असोम के कुछ क्षेत्र
एवं मेघालय के पठार पर पाई जाती है। इसका सर्वाधिक विस्तार केरल में है।
इस
मिटटी में चूना, नाइट्रोजन, पोटाश एवं हयूमस
की कमी होती है। चूने की कमी के कारण यह मिटटी अम्लीय होती है। इस मिटटी की उर्वरा
शक्ति लाल मिटटी से भी कम होती है। इस मिटटी में मोटे अनाज, दलहल
एवं तिलहन की कृषि की जाती है। अम्लीय होने के कारण यह मिटटी चाय की कृषि के लिए उत्तम
मानी जाती है।
5-
वनीय मिटटी (Forest Soil)
पर्वतीय
ढालों पर विकसित होने के कारण इस मिटटी की परत पतली होती है। इस मिटटी में जीवांश की
अधिकता होती है। इसकी उर्वरा शक्ति कम होती है। यह मिटटी बागवानी फसलों जैसे चाय, कहवा, मसाले एवं फलों आदि के लिए अधिक उपयुक्त है। जनजातियों
द्वारा झूम कृषि इसी मिटटी में की जाती है।
6-
मरूस्थलीय मिटटी (Desert Soil)
यह
वास्तव में बलुई मिटटी है, जिसमें लोहा एवं फास्फोरस पर्याप्त
होता है। परन्तु इसमें नाइट्रोजन एवं हयूमस की कमी हेाती है। इस मिटटी में मुख्यत:
मोटे अनाजों की कृषि की जाती है।
7-
क्षारीय मिटटी (Alkaline Soil)
इस
मिटटी को रेह, ऊसर या कल्लर के नाम से भी जाना जाता है। इस मिटटी
का विकास वैसे क्षेत्रों में हुआ है, जहां जल निकासी की समुचित
व्यवस्था का अभाव है। इन मिटिटयों में सोडियम क्लोराइड एवं सोडियम सल्फेट की अधिकता
होती है। ऐसी मिटटी में नाइट्रोजन की कमी होती है। यह एक अनुपजाऊ मृदा है। इसमें नारियल
एवं ताड़ की कृषि होती है।
8.
पीट या जैविक मिटटी (Peats Soil)
दलदली
क्षेत्रों में काफी अधिक मात्रा में जैविक पदार्थों के जमा हो जाने से इस मिटटी का
निर्माण होता है। इस प्रकार की मिटटी काली, भारी एवं काफी अम्लीय
होती है। केरल में इस मिटटी को कारी कहा जाता है। इस मृदा में फास्फेट एवं पोटाश की
कमी होती है। इस मिटटी की उर्वरा शक्ति काफी कम होती है।
महानदी, गोदावरी, कृष्णा और कावेरी नदियों के अतिरिक्त ये मृदाएं
कच्छ के रन में भी पाई जाती हैं।
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